चौबारी के बन्दर
‘अनाम रिश्तों की कोख’– मानस सरोवर कहानी संग्रह – भाग 1 (Hindi Edition)
रामगंगा की तलहटी में बसे चौबारी ग्राम जिसका कि मूल नाम चारद्वारी था, जो कि लगभग आज से तीन सौ वर्ष पूर्व वहाँ के मुखिया एवं शासक रहे कुँवर राघवेन्द्र प्रताप सिंह के आलीशान हवेली नुभा राजमहल के चारों दिशाओं में सुन्दर प्रवेशद्वार स्थित होने के कारण इस क्षेत्र का नाम चर्तुद्वारा पड़ा। इसे लोग चारद्वारी भी कहते थे। शनैः शनैः इसका नाम चर्तुद्वारा और चारद्वारी से चौबारा होते-होते चौबारी पड़ गया। समय के प्रभाववश आये बदलाव और गंगा के अनेकशः उफान पर आने के कारण आयी बाढ़ों ने उस महलनुमा हवेली को अपनी गिरफ्त में लेकर खण्डहर में तब्दील कर कर दिया।
समय बदलता गया कुँवर राघवेन्द्र प्रताप सिंह की वंशवेल पाँचवीं पीढ़ी पर आकर अत्यन्त संघर्षशील हुई परन्तु फिर भी अपने पूर्वजों की विरासत को बचाये न रख सकी। विभिन्न पारिवारिक संघर्षों के परिणाम स्वरूप उनकी वंशवेल छठी पीढ़ी का मुख देखने से पहले ही सूख गयी। बस केवल पीपल का एक विशाल बूढ़ा वृक्ष ही उस सम्पूर्ण वंशवेलों का एकमात्र मौन साक्षी शेष बचा था। उसी की झूलती हुई डालियों पर चहचहाते पक्षियों की कलरव ध्वनि कुँवर राघवेन्द्र प्रताप सिंह के चौबारे की चहल-पहल और पंचम स्वर में कूकती कोयल की कर्णप्रिय ध्वनि ही उनकी जयगान के प्रतीक मात्र बनकर रह गये थे।
उस वृक्ष पर अब बन्दरों ने अपना डेरा जमा लिया है। सारा दिन वे इस पर अठखेलियाँ करते हैं। दिनभर उनका ऊधम चलता रहता है। वे दिन-रात चीं-चीं और खौं-खौं करते पूरे गाँव को अपने सिर पर उठाये रहते हैं। कभी वृक्ष की इस डाल पर तो कभी उस डाल पर। सारा दिन बन्दरों की मजेदार कसरतें देखकर चौबारी के नौनिहालों का जीवन मस्तीमय धुन से आगे बढ़ता जाता है। शायद ही गाँव का कोई घर ऐसा हो जिसमें इस वानर सेना का प्रवेश न हुआ हो। नहीं तो सभी उनकी कारगुजारियों से भली-भाँति परिचित हैं।
यदा-कदा किसी भी ग्रामीण के घर घुस जाना और फिर जो भी खाने पीने का सामान मिलना उसे लेकर चम्पत हो जाना, न मिलने पर कपड़े फाड़ डालना, बर्तन फेंकना और मारने पर काटने को दौड़ना, इस वानर सेना की पुरानी खसलत थी। उनकी इसी धमा-चौकड़ी से सारा गाँव प्रताड़ित था। कुछेक गाँववालों ने बन्दरों से निबटने के लिए कुत्तों को पालने की कोशिश की परन्तु वो भी नाकाम रही। हुआ यूँ कि गाँव वाले कुत्ते पालने हेतु छोटे-छोटे पिल्ले ले आये। बन्दर तो थे ही उत्पाती उन्होंने जब उन्हें गाँव में घूमते हुए देखा तो उनकी पूँछ पकड़-पकड़ कर खेंचना और पटकना शुरू कर दिया। पिल्ले कें-कें करते हुए जान बचाकर भागते। हुआ ये कि उन्हें डराने के लिए लाये गये कुत्ते खुद उनसे डरने लगे।
गाँव के जमींदार धर्मपाल सिंह ने इनसे निबटने के लिए एक भूटानी नस्ल का बड़ा कुत्ता मंगाया। कुत्ता एकदम काला और देखने में बड़ा ही डरावना था। शुरु में कुछ दिन तो बन्दर उसे देखते रहे और उसकी रौबीली आवाज से भय खाकर उनके घर जाने से बचते रहे परन्तु एक दिन जब वह कुत्ता खुलकर घूमता हुआ पीपल के पेड़ के नीचे आ गया और भौंकने लगा तो बन्दरों को मौका लग गया। बन्दर उसे देखकर डाल पकड़ कर जरा नीचे की ओर लटकते कुत्ता दौड़कर उन्हें पकड़ने के लिए उछलता और भौंकता। बन्दर तुरन्त कूदकर दूसरी डाल पर जा चढ़ते। इस प्रकार उस दिन बन्दरों ने कुत्ते को बहुत देर तक छकाया। फिर अचानक बन्दरों के सरदार को जाने क्या सूझी कि वो एकदम से कूदकर पेड़ की जड़ पर आकर बैठ गया। कुत्ते ने जैसे ही उसे देखा तो भौंकने लगा। बन्दर ने बुरा सा मुँह बनाकर उसकी ओर देखकर खीसें निपोर दीं। कुत्ते ने समझा कि बन्दर उससे डर गया है और वह और जोर से भौंकने लगा। अब बन्दर ने हल्की सी घुड़की दी। कुत्ता पहले पीछे हटा पर एकदम से मुँह फैलाकर बन्दर की ओर झपटा। बन्दर ने आव देखा न ताव और कसकर एक जोरदार चपत कुत्ते की कनपटी पर रसीद कर दी।
कुत्ता इसके लिए तैयार न था। यद्यपि वह देखने में बड़ा जरूर था पर इस अप्रत्याशित वार से मात खा गया। चपत खाकर एकदम सन्न रह गया और पीछे हट गया। पर अगले ही पल दुगने जोश में भरकर वह फिर बन्दर पर झपटा। और अबकी बन्दर ने वो किया जिसके लिए वो सारे जगत में विख्यात है। ऐसी जोर की घुड़की मारी कि कुत्ते के होश उड़ गये वो कुछ समझ पाता इससे पहले ही उसने अबकी बार इतनी जोर से झन्नाटेदार चन्कट मारा कि कुत्ता कीं कीं करता हुआ भाग खड़ा हुआ। जब वो वहाँ से भागा तो उसके पीछे ढेर सारे बन्दर लग लिये। कुत्ते ने जब यह देखा तो जान बचाने के लिए सिर पर पैर रखकर ऐसा सरपट भागा कि लौटकर पीछे मुँह ही नहीं किया। और बन्दर गाँव में दूर तक उस दुम दबाए कुत्ते को दौड़ाकर ही माने। तब का दिन है कि आज तक उस कुत्ते ने इधर पीपल के वृक्ष की ओर मुँह नहीं किया है। यही नहीं उसके बाद तो बन्दरों का गाँव में वो रौब जमा कि गाँव भर के कुत्तों ने बन्दरों की एकता के आगे हथियार डालते हुए डर के मारे उनसे दोस्ती कर ली और आज आलम ये है कि कुछ बन्दर तो उन गाँव के कुत्तों पर सवारी तक करते हुए दिखलायी देते हैं। जब गाँव वालों ने बन्दरों को कुत्तों के कान पकड़ कर सवारी करते देखा तो चक्कर में पड़ गये। लेकिन उनसे कुछ भी करते न बना। कुत्तों ने भी जब समय की गति को देखते हुए उनसे समझौता करना ही बेहतर समझा तो गाँव वालों ने भी खुद को ऊपर वाले के ही रहमों करम पर छोड़ दिया।
बन्दरों के गढ़ उसी पीपल के वृक्ष के सामने आज गाँव के अध्यापक ठाकुर कृष्ण पाल सिंह का दुमंजिला मकान खड़ा है। उसी में उनका छोटा सा परिवार रहता है। मास्टर साहब यद्यपि जाति से ठाकुर हैं परन्तु गुण एवं स्वभाव सम्पूर्ण रूप से एक कुशल एवं श्रेष्ठ सद्ब्राह्मण सरीखा है। सारे गाँव में उनका बहुत मान सम्मान है। शायद ही चौबारी गाँव का कोई वाशिंदा होगा जो कि मास्टर साहब से परिचित न हो। इस समय पूरे गाँव में मात्र दो ही मकान पक्के हैं। एक गाँव के जमींदार धर्मपाल सिंह का और दूसरा मास्टर कृष्ण पाल सिंह जी का। शेष सभी घर कच्चे और खपडै़लों से पटे हैं।
उनका एकमात्र पुत्र सूरज पाल सिंह जो कि अब पूरे सोलह साल का हो चला है, देखने में जवान पट्ठा सा दिखाई पड़ता है। लेकिन लड़कपन अभी गया नहीं है। ठाकुर बिरादरी का खून है। इसीलिए गाँव में दंगल खेलना, कुश्ती लड़ना और हथियार चलाना आदि उसके पारम्परिक पैतृक शौक हैं। हाथ में लाठी लिये चलना तो उसकी आदत बन गयी है। कारण कि वह अपने गाँव का सबसे उत्तम किस्म का लठैत है। इतनी कम उम्र में उसको इतनी अच्छी लाठी-बाजी करते देखकर सभी गाँव वाले दाँतों तले उंगली दबा लेते हैं। ऊपर से रौबीला दिखने वाला बड़ी कद-काठी का वह सजीला जवान भीतर से अत्यन्त कोमल स्वभाव का है। और हो भी क्यों न, कारण कि उसकी रगों में एक अति आदर्शवादी पिता मास्टर कृष्ण पाल सिंह जी का खून जो दौड़ रहा है।
आज अचानक पिता का आदेश पाकर उसने चावलों से भरा बोरा पीठ पर लादा और मकान की ऊपरी मंजिल पर स्थित कमरे में रखने के लिए ले चला। बोरा जो पीठ पर लादा तो पलट के नहीं दखा ओर एक ही साँस में वह ऊपर चढ़ता चला गया। ऊपर जाकर कमरे में बोरा रखकर जब वो वापस लौटा तो देखा ये क्या? ऊपर सेलेकर नीचे तक चावलों की एक लम्बी रेखा सी दिखलायी दी। उसे यह समझते देर न लगी कि निश्चित ही बोरी में छेद रहा होगा और उसी के परिणाम स्वरूप ये चावल लगातार नीचे गिरते रहे और एक लम्बी रेखा सी बन गयी।
अभी वह छत पर खड़ा चावलों की रेखा देख ही रहा था कि उसके पिता मास्टर कृष्ण पाल सिंह जी की आवाज सुनायी दी ‘‘सूरज बेटा!’’ सूरज ने ऊपर से ही जबाब दिया – ‘‘जी पिता जी!’’ ‘‘अरे तू जो बोरा लेकर गया है उसमें छेद है। देखा तो सारे चावल बिखर गये हैं।’’ सूरज ने जवाब देकर नीचे आते हुए कहा – ‘‘कल तक तो बोरा बिल्कुल ठीक-ठाक था परन्तु रात भर में ही इसमें छेद कैसे हो गया? लगता है चूहों ने काट दिया होगा’’ मास्टर साहब ने पास आते हुए सूरज से कहा – ‘‘नहीं बेटा! ये चूहों का काम नहीं है। मैंने सुबह ही अपने कदमां की आहट पाकर बोरे के पास से भागते हुए बन्दर को देखा था। लगता है ये उसी का काम है। तुम तो जानते ही हो कि ये बन्दर तो सारा दिन गाँव भर में ऊधम मचाते रहते हैं। उन्हें गाँव के कुत्तों तक का खौफ नहीं रहा है। उन्होंने तो खुद डर के मारे बन्दरों से दोस्ती गाँठ ली है।’’
सूरज आवेशित होता हुआ बोला – ‘‘आज इन्हें सबक सिखाना ही होगा।’’ मास्टर साहब ने उसे शान्त करते हुए कहा – ‘‘अरे जाने दो! वो तो होते ही उत्पाती हैं। कोई बात नहीं, गलती हमारी ही है।’’ ‘‘हमारे क्या गलती है?’’ ‘‘अरे हमीं ने तो बोरा खुले में रखा रहने दिया। यदि बन्दर कमरे में रखते तो ……..।’’ अभी मास्टर साहब अपनी बात पूरी भी न कर पाये थे कि भारतेन्द्र ने उग्र स्वर में कहा – ‘‘ये सब बस आपकी उदारता के कारण ही है। नहीं तो ये बन्दर तो मात्र एक दिन में ही ठीक हो जायें ……।’’ सूरज इतना ही कह पाया था कि मास्टर साहब बोले – ‘‘सूरज! वो देखो!’’ सूरज्र ने पीछे मुड़कर देखा तो एक बन्दर फिर उसी जगह बैठा हुआ देखा जहाँ नीचे बोरा रक्खा था। वहाँ चावल बिखरे हुए थे और वो उन्हें ही मजे से बेखबर चावल बीन-बीन कर खा रहा था।
सूरज के दिमाग में अचानक खुराफात सूझी ओर उसने मास्टर साहब से कहा – ‘‘पिता जी आप जल्दी से ऊपर छत पर चले जाओ और मैं नीचे रहता हूँ। ये बन्दर अब चावल खाते-खाते बोरे में से गिरे चावलों को खाने के लिए चावलों की लीक के सहारे ऊपर आयेगा। बस वहीं से आप इसे नीचे दौड़ाना। मैं नीचे लट्ठ लिए खड़ा रहूँगा। इस प्रकार वह बीच में फँस जायेगा और फिर उसे ऐसा सबक सिखाऊंगा कि वो कभी इधर लौटकर नहीं आएगा।’’
मास्टर साहब जो अभी तक सूरज को समझा रहे थे अचानक हुए इस परिर्वन के वशीभूत हो अचकचाकर डंडा लिए ऊपर चले गये। ठीक वैसा ही हुआ जैसा सूरज कह रहा था। वह बन्दर चावलों को बीन कर खाते-खाते, धीरे-धीरे ऊपर साढ़ियों की तरफ बढ़ा और फिर सीढ़ी दर सीढ़ी ऊपर चलता चला गया। जैसे ही वह पाँचवीं सीढ़ी से ऊपर बढ़ा नीचे से सूरज ने लाठी फटकारी। लाठी की आवाज सुनकर वह सीधे ऊपर की ओर भागा। ऊपर से छिपे खड़े मास्टर साहब ने हाथ के डंडे को दरवाजे पर मारा। ऊपर की तरफ खतरा देखकर बन्दर फिर नीचे की तरफ भागा। नीचे से सूरज जो कि दो सीढ़ी ऊपर चढ़ आया था, उसने फिर लाठी फटकारी। बन्दर फिर ऊपर भागा। ऊपर मास्टर साहब को हाथ में डंडा लिये खड़े देखकर फिर वापस नीचे की ओर आया। और इस प्रकार ऊपर-नीचे के चक्कर काट-काटकर वो बेचारा हक्का-बक्का होकर बीच में ही खड़ा हो गया। बस यहीं सूरज को जो कि अब तक उस बन्दर पर अपनी पैनी दृष्टि गड़ाए हुए था उसने ताव में भरकर लाठी का एक भरपूर वार उस बन्दर पर कर दिया। लठैत सूरज का हाथ इस तेजी से घूमा था कि बन्दर को बचने का मौका ही न मिला। लाठी खाकर वो इतनी जोर से चीखा कि सारा वातावरण उसकी दारुण चीख से गूँज उठा। लाठी का प्रहार इतना तीव्र एवं जोरदार था कि वह भूमि से उठ न सका एवं वहीं पर ढेर हो गया। उसके मस्तक से रक्त की धार बहने लगी। लाठी उसके सिर में लगने के कारण वह बेहोश होकर वहीं गिर गया।
बन्दर तो बेहोश होकर गिर गया परन्तु सूरज का माथा ठनक गया। उसके पिता मास्टर कृष्ण पाल सिंह ने छत पर से ही कहा – ‘‘सूरज! तुमने ये क्या किया? लगता है ये बन्दर तो मर गया।’’ हाथ में खून से सनी लाठी लिए खड़ा सूरज अभी कुछ कह पाता कि इतने में उसे देखा कि एक बन्दर ऊ से उतरा और मूर्छित पड़े बन्दर को देखकर एक अजीब सी आवाज में चीखने लगा। चीखता हुआ वह बन्दर कभी इस डाल पर तो कभी उस डाल पर से होता हुआ पूरा इलाके में शोर बचाने लगा।
उसकी इस चीख-पुकार को सुनकर सूरज को किसी बड़े खतरे का आभार हुआ और वो वहीं से चीखा – ‘‘पिता जी! आप जल्दी से कमरे के भीतर चले जाओ और किवाड़ बन्द कर लो।’’ सूरज अभी इतना कह ही पाया था कि पास-पड़ौस से बन्दरों के चीं-चीं के शोर की आवाज सुनायी देने लगी। अब सूरज दौड़ा और नीचे के कमरे में घूस गया और दरवाजे को चिटकनी लगा। अभी वो चिटकनी लगा ही पाया था कि बन्दरों की फौज छत पर आ धमकी। बन्दरों की धमक सुनकर सूरज को ध्यान आया कि अम्मा तो रसोई घर में ही हैं। उसने वहीं से चिल्लाना आरम्भ किया – ‘‘अम्मा। छत पर बन्दर हैं। जल्दी से रसोई के किवाड़ बन्द कर लो। खोलना मत ढेर सारे बन्दर हैं। जल्दी से कुण्डी लगा लो।’’
बस सूरज को इतना बोलना थ कि बन्दरों के समूह को आवाज सुनायी दी और उन्हें लगा कि इस बन्दर का हत्यारा वहीं नीचे ही है। सो बन्दरों का झुण्ड आवाज के सहारे नीचे उस कमरे की ओर दौड़ पड़ा जिसमें सूरज बन्द था। बन्दरों ने कमरे को बन्द पाकर दरवाजे को पीटना शुरू कर दिया। सूरज की हृदयगति बढ़ने लगी। पलक-झपकते ही बन्दरों ने दरवाजे को झंझोड़ कर रख दिया। बन्दरों के भय से घबराये सूरज ने दरवाजे को हाथों से दबाये रक्खा परन्तु जब दबाब बढ़ने लगा तो वह बेचैन हो गया ओर घबराकर कमरे में पड़े पलंग को दरवाजे से सटाकर उससे टेक लगाकर बैठ गया। उसके इसी प्रयास में जब पलंग जोर की आवाज के साथ टकराया और बैठने की धमक हुई तो सूरज के पिता मास्टर साहब को लगा कि सूरज को बन्दरों ने घेर लिया है। वो जोर से चीखे – ‘‘अरे सूरज की माँ! देख! बन्दरों ने सूरज को घेर लिया है।’’
उनका इतना बोलना था कि बन्दरों का वो झुण्ड जो सूरज के कमरे को घेरे हुए था उनकी आवाज सुनकर ऊपर छत की ओर दौड़ा। एक साथ पाँच-छःह सौ बन्दर चीखते-चिल्लाते जीने की ओर बढ़े। पलक-झपकते ही वे सब छत पर मास्टर साहब के कमी के दरवाजे पीटने लगे। मास्टर साहब ने उन्हें भगाने के लिए अन्दर से ही दरवाजे पर डंडे से कई प्रहार किये। डंडे की आवाज से बन्दर और ज्यादा उत्तेजित हो गये तथा बुरी तरह दरवाजा पीटने लगे।
नीचे रसोईघर की जाली से सूरज की माँ ने बन्दरों के विशाल झुण्ड को ऊपर की ओर दोड़ते हुए देख लिया था। जब उन्होंने छत पर धमाचौकड़ी सुनी और मास्टर साहब द्वारा डंडे से दरवाजा पीटने की आवाजें सुनीं तो उन्हें लगा कि शायद बन्दरों ने दरवाजा तोड़ दिया है और मास्टर साहब को घेर लिया है। वह जोर से चिल्लाईं – ‘‘ओ लल्ला सूरज ! देख बन्दरों ने तेरे पिताजी को घेर लिया है। बहुत सारे बन्दर हैं उन्हें बचाओ।’’
ज्यों ही बन्दरों ने उनकी आवाज सुनी तो वे सारे के सारे उनकी आवाज के सहारे रसोईघर की ओर दौड़ पड़े। देखते ही देखते उन्होंने रसोईघर को घेर लिया और चारों तरफ से चीं-चीं और खौं-खौं की आवाजें आने लगीं।
सूरज से न रहा गया उनसे माँ को हिम्मत बँधाते हुए जोर से कहा – ‘‘अम्मा घबराना मत। तुम बस किवाड़ को कसकर बन्द करे रहो। किवाड़ मत खोलना।“
बन्दरों को तो जैसे एक भूत सा सवार था। जिधर से जरा सी आवाज आती बस वो उधर ही दौड़ पड़ते। उनका लक्ष्य कानमें आती आवाज थी। वो उस व्यक्ति की तलाश में थे जिसने उनके साथी को मारा था। इस तरह जहाँ मास्टर साहब और सूरज जोर-जोर से चीखकर एक दूसरे का हाल ज्ञात करते वहीं बन्दर उनकी आवाजों पर ऊपर से लेकर नीचे तक तेजी से दौड़ लगाते और जोर-जोर से शोर मचाते। उस समय तो जैसे साक्षात् चण्डी ही उन पर सवार थी। यदि धोखे से भी कोई व्यक्ति उनके हत्थे चढ़ जाता तो राम जाने उसका क्या हाल होता। क्रोधित एवं बेकाबू बन्दर उसको इस कदर नोचते-खसोंटते व काट खाते कि उसकी सूरत शायद उसके परिवार वाले भी न पहचान पाते।
इस प्रकार दहशत भरे माहौल में लगभग डेढ़ घण्टा बीत गया। सभी के पसीने छूट गये। दिल धक-धक करने लगे। पता नहीं राम जाने अब क्या होगा? सूरज मन ही मन सोच रहा था कि जाने कैसे इस मुसीबत से छुटकारा मिलेगा? बेचारे मास्टर साहब सोचते थे कि ‘कहाँ बैठे-बैठाये इस नादान सूरज ने आफत मोल ले ली। अब किसी तरह इस बबाल से छुटकारा मिले तो जान में जान आये।’ यही सोचते-सोचते अचानक उनके मन में एक युक्ति आयी। उन्होंने अपने कमरे में से सड़क की ओर खेलने वली खिड़की में से राहगीरों एवं आस-पड़ोसियों को सहायता के लिए पुकारना शुरू किया।
सामने से आते खुदीराम महतो ने जब मास्टर साहब को छत से चिल्लाते हुए देखा तो पास आकर पूछने लगा – ‘‘क्या हुआ मास्टर साहब? सब कुशल तो है?’’ मास्टरसाहब ने भर्राये कंठ से कहा -‘‘खुदीराम हम लोग फँसे हुए हैं। घर को बन्दरों ने घेर रक्खा है। करीब पाँच-छःह सौ बन्दर घर के अन्दर हैं। हम लोग अपने कमरों में कैद हैं। तुम जल्दी से कुछ लोगों को लेकर पड़ोस की छत से अन्दर आओ। पर खाली हाथ मत आना। खुदीराम ने ज्यों ही ये सब सुना, वो बोला – ‘‘आप चिन्ता न करें मास्टर जी! मैं अभी आया।’’ और यह कहकर वह तेजी से अपने घर की ओर भागा तथा सभी को चीख-चीखकर इकट्ठा करने लगा।
कुछ ही देर में पड़ोस की छत पर हलचल मचना शुरू हो गयी। पड़ोसी रामलाल की छत से एक-एककर लोगों ने मास्टर साहब के आंगन में कूदना शुरू किया। सभी के हाथां में डंडा, लाठी, फरसा, भाला, कुल्हाड़ी आदि थी। कुछ एक टूटा पीपा लेकर कूदे और उसे जोर-जोर से पीटने लगे। एकाएक धमाचौकड़ी होते देख और जोर का शेर होता पाकर बन्दर छत की ओर भागे। इतने में गाँव के जमींदार धर्मपाल सिहं ने अपनी दुनाली बन्दूक से हवाई फायर कर दिया। अब बन्दरों की बेचैनी बढ़ी और वे उस मृतप्राय बन्दर को लेकर भागे तथा छत पर एक कोने में ले जाकर लिटा दिया। कुछ वानर उसकी देखभाल में लगे और शेष पुनः छत की मुंढेरों पर आकर मोर्चा लेने के लिए तैयार हो गये।
नीचे से पीपों का शोर और ऊपर सेबन्दरों की चीं-चीं और खौं-खौं का शोर बढ़ने लगा। इधर फायर की आवाज सुनकर पड़ौर के गाँव से भी बन्दूकधारी युवकों की टोली आ पहुँची। चारों ओरसे फायरों की बढ़ती आवाजों और ग्रामीणों के बढ़ते शोर और बच्चों की पत्थर बाजी से घबराकर बन्दरों ने मैदान छोड़ने का मन बनाया और तितर-बितर हो लिए। यद्यपि उन्होंने मास्टर साहब के घर को तो छोड़ दिया परन्तु सामने पालपल के वृक्ष को शरणस्थली बनाकर उस पर जमा हो गये।
बन्दरों के मकान से हटते ही ग्रामीणों ने जब मास्टर साहब, उनकी पत्नी और सूरज को उनके कमरों से निकालकर सुरक्षित उनकी बैठक में पहुँचाया तब कहीं जाकर उन्होंने चैन की साँस ली।
शाम ढलनेलगी थी। मशालें जलायी गयीं और रातभर जागकर लोगों ने मास्टरसाहब के घर पर पहरा दिया। उधर बन्दरों ने उस घायल बन्दर के सहायतार्थ कुछ बन्दरों को नियुक्त किया वे सात-आठ बन्दर सारी रात छत पर ही उस घायल बन्दर को घेरकर बैठे रहे। शेष सभी पीपल की डालों पर चिपके रहे।
प्रातः जब सूर्य क्ी प्रथम किरण के साथ ही उस घायल बन्दर ने आँखें खोलीं तो बन्दरों को धैर्य आया और फिर उसे जीता पाकर मात्र कुछ बन्दर उसकी सेवा-सुश्रुषा में वहाँ रहे, बाकी सब वापस लौट गये।
अब जब बन्दरों को घर सेदूर जाते देखा तो गाँव वालों ने भी अपने-अपने घर का रास्ता किया। मास्टर साहब और सूरज ने उनका अनेकशः धन्यवाद किया और जान बचाने के लिए शुक्रिया अदा किया। सूरज ने संकट में साथ देने के लिए अपने पड़ौसी गाँव के मित्रों की सराहना की और मन ही मन घेर पश्चाताप की वेदना में डूब गया।
उसे लगा कि उसने ये उचित नहीं किया। उसके पिता ठीक ही कर रहे थे कि वानर तो उत्पाती होते ही हैं। हमें ही अपनी वस्तुएं संभाल कर रखनी चाहिए। साथ हीपिता के कहे हुए ये शब्द उसके दिमाग मेंरह-रहकर गूँजने लगे। ‘‘मात्र अनाज की चोरी का दण्ड मृत्यु थोड़े ही होना चाहिए। ये पूर्णतः गलत है। बेटा सूरज! तुमने ये ठीक नहीं किया। तुम्हारी गल्ती के कारण ही आज हम सबकी जान पर बन आयी। बेटा शक्तिशाली होने का अर्थ ये नहीं है कि दूसरे की जान ही ले लो। असली शक्तिवान तो वही है जो सामर्थ्य के होते हुए भी अपराधी को क्षमा कर देता है।’’
उस दिन सारी रात सूरज सो नहीं सका। आदर्शवादी पिता के कहे हए वचन उसे सारी रात कचोटते रहे। रह-रहकर उसके मस्तिष्क में वह दृश्य कौंध जाता जब उसेउसने उस निरीह बन्दरपर लाठी का प्रहार किया था और पलक झपकते ही वह दारुण चीत्कार करता हुआ वहीं पर जीने में ही ढेर हो गया था। इसी कशमकश में ये पता ही नहीं चला कि कब नींद आ गयी।
अगले दिन जब प्रातःकाल जब गर्वीला और हठीला सूरज जगा तो कुछ बदला-बदला सा था। उठते ही सर्वप्रथम वह छत की ओर भागा। उसकी पदचाप सुनते ही छत पर घायल बन्दर के पास बैठक कुछेक बन्दर उछलकर पेड़ों पर जा चढ़े। सूरज ने पास जाकर घायल बन्दर को देखना चाहा। वह उसे समीप देखकर कुछ गुर्राया, सिर से निकला खून माथे पर आकर जम गया था लेकिन उसमें इतनी शक्ति शेष नहीं थी कि उठ पाता। उठने के प्रयास में वहीं लुढ़क गया।
सूरज ने उसे जीवित देखकर चैन की साँस ली और कि उल्टे पैरों दौड़कर नीचे नल पर आया। एक कटोरे में जल भरा और माँ से कुछ खाने की वस्तुएं लीं और फिर ऊपर की ओर दौड़ गया। पिता कृष्णपाल सिंह ने जब उसे ऐसा करते देखा तो वे उसके पी-पीछे ऊपर चले गये।
ऊपर पहुँचकर उन्होंने देखा कि सूरज उस घायल बन्दर के पास उस जल के कटोरे को रख रहा है और बन्दर यद्यपि दाँत निकालकर अपने गुस्से का इजहार कर रहा है लेकिन सूरज शान्त भाव से अनुग्रह के भाव में उससे जल पीने की प्रार्थना कर रहा है। कुछ इसी भाव से उसने वो खाद्य पदार्थ घायल बन्दर के पास रख दिये और अपने सजल नेत्रों को पोंछता हुआ वापस मुड़ने लगा।
यकायक पिता जी को सामने पाकर उसने सिर झुका लिया। पिता ने उसके आँसुओं को पोंछते हुए कहा – ‘‘सूरज व्यथित मत हो। तुम्हारे पश्चाताप के ये आँसू तुम्हारी मनोव्यथा को पूर्णतः अभिव्यक्त कर रहे हैं। तुमने अपे पाप को धो दिया है। वो देखो उस वानरने भी तुम्हें क्षमा कर दिया हे और तुम्हारे दिए हुए जल को ग्रहण कर रहा है। बेटा ये जीव-जन्तु भी बहुत समझदार होते हैं, ये प्रेम और घृणा की भाषा को बखूबी समझते हैं। जब उसने ये जान लिया कि अब तुमसे उसे कोई खतरा नहीं है तो वह सहज हो गया। उसे लगा कि तुमने अपना अपराध स्वीकार कर प्रायश्चित स्वरूप उसकी ओर मित्रता का हाथ बढ़ाया है तो उसने सहज भाव से उसे स्वीकार कर लिया। अब वो तुम्हारा दुश्मन नहीं दोस्त बन गया र्है।’’ ये कहकर मास्टर साहब ने सूरज को अपने गले से लगा लिया।
सूरज के अवरुद्ध कंठ से चाहकर भी कुछ बोल न फूट सके और वह मन ही मन उस घटना के बारे में सोचता चला गया। ‘हम लोगों से कितने अच्छे और सभ्य हैं ये वन्य जीव। इनमें कैसा प्रेम है, कितनी अगाध समपर्ण भावना है। मात्र एक वानकर की चीत्कार पर एक ही पल में इतने सारे वानर एक स्थान पर एकत्र होकर उस एक प्राणी पर आयी विपत्ति से जूझने के लिए तेयार हो गये। अपने प्राणों की परवाह न करके भी लोहा लेने के लिए तैयार थे। मानवों से भी कितनी अधिक मानवीयता है इन जीवों में। देखा कैसे उस घालय की सेवा-सुश्रुषा में लगे थे। कुछ एक तो उसकी सुरक्षा का कार्य संभाल रहे थे। यही नहीं जब तक उसे चेतना हीं आयी तब तक उसे अकेला नहीं छोड़ा अपितु आज भी हमारे घर के आस-पास ही मंडरा रहे हैं। एकता का सबक यदि सीखना है तो इनसे सीखे। कैसी गजब की एकता है इनमें। मात्र एक बन्दर की पुकार पर सबको इकट्ठे होते दर नहीं लगी। वो तो भला हो जो हम लोग कमरों में थे नहीं तो …….. राम जाने ………।’’
इस प्रकार उस चिन्तन से युक्त होकर सूरज ने नित्यप्रति घायल वानर की सेवा प्रारम्भ कर दी। एक-आध दिन खाने-पीने का सामान देने के बाद फिर सूरज ने तीसरे दिन उस वानर के घाव को साफ करके उस पर मरहम लगायी। जब सूरज मरहम लगा रहा था तो घर के आस-पास के पेड़ों पर बैठे बन्दर टकटकी लगाकर उसे देख रहे थे और पीड़ित बन्दर एकदम शान्त भाव से सूरज की गोदी में लेटा पट्टी करवा रहा था। सूरज पट्टी पर पट्टी लपेटता जाता था और वह वानर धीरे से थोड़-थोड़ी आँखें खोलकर उसके मुख को निहारता जाता था।
मरहम पट्टी का ये सिलसिला इसी प्रकार कई दिनों तक चलता रहा। अब बन्दर उठकर चलने-फिरने लायक हो गया। थोड़ा लंगड़ाता जरूर था परतु शरीर के अय घाव भर गये थे। सिर का जख्म भी भरने को आ गया। अब वह बन्दर सूरज को अपनी ओर आता देखकर उसकी ओर प्रेम से कुलांचे भरने की चेष्टा करता परन्तु टाँग में चोट होने के कारण लंगड़ा कर गिर जाता। सूरज दौड़कर उसे उठाता और गोद में ले लेता। वो सूरज के बालों में हाथ फरता कभी गालों को सहलाता तथा कभी अपनी नन्हीं आँखें मच-मचाकर उसे प्रेम से निहारते हुए अपनी गर्दन उसके कंधे पर डाल देता।
सूरज को उससे इस कदर लगाव हो गया कि वो उसे अपने हाथों से खाना-खिलाने लगा। वह वानर उसका प्रेमिल सान्न्धि्य एवं सेवा-सुश्रुषा पाकर शीघ्र ही स्वस्थ हो गया और अपने साथियों के पास जाने लगा।
जब वह स्वस्थ होकर अपने साथियों के साथ खेल रहा था तो अचानक सूरज छत पर पहुँच गया। उसे अपनी मित्र मण्डली में हंसी-खुशी खेलते देखकर सूरज की आँखें छलछला आयीं उसे लगा कि उसका प्रायश्चित पूरा हो गया है परन्तु इतने में उसकी आहट पाकर वह बन्दर पलटा और एकदम बड़ी तेजी से सूरज की ओर झपटा। वह एकदम भौंचक्क रह गया। एकाएक उसके उछलने से सूरज घबरा गया और अगले ही पल बंदर उससे इतनी जोर से लिपट गया कि उसे छुटाना मुश्चिकल हो गया। शेष बन्दर भी सूरज की ओर बढ़े। सूरज पसीना-पसीना हो गया। परन्तु तभी सूरज ने देखा कि शेष बन्दर उसको पकड़कर खींच रहे हैं और वह उससे लिपटता ही जा रहा है। वह उसे छोड़ना नहीं चाहता और इसीलिए उसे कसकर पकड़े जा रहा है। अब सूरज बैठ गया। उसने उसे अपने से अलग करना चाहा पर वह और चिपट गया। सूरज की आँखों से अविलरल अश्रुधार प्रवाहित हो उठी। अचानक उसका कंठ अवरुद्ध गया और हिचकी फूट पड़ी। ऐसा होते ही उस बन्दर ने सूरज को छोड़ा और उठकर खड़ा हो गया। उसके साथी उसे अपनी ओर खींचने लगे पर वह धीरे से आगे बढ़ा और सूरज के चेहरे पर आये आँसुओं को पोंछने लगा।
ये देखकर सूरज से रहा न गया। उसने उसे कंठ से लगाकर भींच लिया। शेष बन्दर देखते रह गये जब सूरज की आँखों से बहने वाले आँसुओं की धार से उस बन्दर का रोम-रोम गीला होने लगा। अब शेष बन्दर उठकर वापस जाने लगे। तभी वो बन्दर सूरज की गादी से यकायक उछला और फिर उनकी टोली में जा मिला। सूरज उन्हें दूर तक जाता देखता रहा। वो वानर पलट-पलटकर सूरज को देखता जाता था तथा सूरज अपना सीधा हाथ उनकी दिशा में हिलाते हुए बायें हाथ से अपनी आँखों से लगातार रिसते हुए पश्चाताप की खुशी मिश्रित आँसू पोंछता जाता था।
डॉ. जितेंद्र कुमार शर्मा ‘ज्योति’