कड़वा नीम

किसने सोचा कभी नीम, बन जाऊँ मैं।

सब गुलाबों की ख्वाहिश ही करते रहे।।

कौन कहता यहाँ, सच को, सच अब कहाँ।

सब.झूठी सिफारिश ही करते रहे।।

अपना पन कैसे ढूँढें, अब अपनों में हम।                               

हर दिल में छिपा है, फकत बस है ग़म।    

है समन्दर ही खारा, बसा दिल में अब।

बनके झरना कभी मन थे झरते रहे।।

सब पुराने हुए इश्क के दौर अब।

हर तरफ ही दिखे है, नया दौर अब।

कौन मरता यहाँ एक दूजे पे अब।

गैर के ही लिए सब हैं मरते रहे।।

किसको मिलती कहाँ कब है मन की परी।

सबकी ख्वाहिश सदा ही अधूरी रही।

‘ज्योति’ जल जल भी हरदम ही तन्हा रही।

बन पतंगा थे लाखों ही मरते रहे।।

डॉ. जितेन्द्र कुमार शर्मा ‘ज्योति’

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