पुस्तके इंसान की सबसे अच्छी मित्र होती है क्योकि ये न केवल एक इंसान एक जीवन के एक कीमती अनुभवों से हमारा परिचय करवाती है बल्कि हमे ‘स्व(अहम्)’ से निकलकर संसार को किसी दूसरे के चश्मे से देखने की सुविधा भी प्रदान करती है। कभी अपने सोचा भी है की जो किताब हम-आप कुछ घंटो में पढ़ डालते है उसे लिखने में एक लेखक को कितनी यथार्थ को तोलना पड़ता है या कल्पनाओ के समुन्दर में डुबकी लगनी पड़ती है। तब जाके कही वो मोती रूपी कहानी की किताब या तालमय काव्य संसार के समक्ष आ पता है। एक समझदार और बुद्धिजीवी होने का परिचय देते हुए हमे उनके अनुभवों से सीख लेते हुए अपने जीवन संघर्षो के विरुद्ध उनका प्रयोग कर अपनी विजय सुनिश्चित करनी चाहिए।
समस्या : क्या आपको पता है की औसतन कितने प्रतिशत व्यक्ति ऐसा करने में सफल हो पाते है? — केवल 1-2 प्रतिशत लोग।
आंकड़े चौकाने वाले है , लेकिन हमारी असफलताओ के स्पष्ट प्रतिक है। आखिर दिक्कत कहा आ रही है ?
- क्या किताबे कम है संसार में ?
- लोगो के पास पैसो की कमी किताब खरीदने के लिए ?
- किताबो को पढ़ने के लिए समय का आभाव ? आदि।
अगर आपको भी लगता है की उक्त समस्याएं इतनी बड़ी है की आपको अपनी मूल समस्या के निवारण ढूढ़ने वाली युक्ति को प्राप्त करने से रोक सकती है तो केवल एक ही बात हो सकती है कि आपकी वो समस्या वास्तव में आपकी मूल समस्या है ही नहीं। वस्तुतः हो सकता है कि अपनी उस समस्या का बखान कर आप बस समाज से सहानुभूति प्राप्त करना चाहते है जो की अपने आप में एक समस्या है।
अगर ऐसा है तो हमारा ‘कल से कल तक का सफरनामा’ पढ़ना न भूले जो न केवल ‘दुःख में सुख’ की आपकी मानसिकता को झकझोर कर रख देगा , बल्कि आपको जीवन को और उत्साह और आशावादी होकर जीने का मार्ग भी दिखायेगा।
वास्तविक समस्या है – ‘मार्गदर्शन’ ।
जी हाँ , बिलकुल सही सुना आपने। जिस प्रकार अर्जुन को महाभारत के युद्ध में श्री-कृष्ण ने कर्मो से जुड़ा समस्त ज्ञान एक आसान तरीके से पवित्र ग्रन्थ ‘श्रीमद्भागवत गीता’ के रूप में बताया, ठीक उसी प्रकार यदि कोई इन मोटी-मोटी पुस्तकों में संचित अनमोल ज्ञान आज की परिस्थितियों के अनुसार पाठक से जोड़ के बता दे जिससे की उनके समक्ष अपनी समस्या के निदान का चित्र बन सके। ये एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि हमारे दुःख और सुख वास्तव में हमारे होते ही नहीं है, बल्कि वो तो संसार की हमारे बारे में क्या सोच है उसकी छवि होती है।
यदि कोई हमारे असीम सुख की घडी में सामने से आके विश्वास के साथ ये कह दे की – “आप इतने खुश नहीं लग रहे।” यकीन मानिये की 100 में से 90 लोग तो ये सोचने भी लग जायेगे की अवश्य ही कोई समस्या होगी तभी न उसने कहा। ठीक इसी प्रकार यदि कोई दुःख में आके कंधे पर हाथ रख के विश्वास के साथ कह दे-“ये तुम क्या छोटी की बात को लेके दुखी हो। मेरे साथ भी ये हुआ था और मैं तो क ख ग यत्न करके इस परिस्थिति से बाहर आ गया था।” अब हमारा दिमाग सोचेगा की अगर इसने कर लिया तो मैं भी कर ले जाऊंगा। जी हाँ, विश्वास के इसी रथ पर सारा संसार चल रहा है, बस ज़रुरत है एक सारथि की। जो की हमने यहाँ अपनी वेबसाइट ‘ज्योर्तिस्तम्भ’ पर आपके लिए बनने का एक छोटा सा प्रयत्न किया है।
महीने में कम से कम 2 किताबो का सार आपके सामने प्रस्तुत करने की इच्छा से इस नए अनुष्ठान का श्री गणेश किया है। आशा करता हूँ की आपके लिए ये न केवल हितकारी रहेगा, बल्कि जीवन के लिए आपका एक नया दृष्टिकोण भी विकसित करेगा।
धन्यवाद्,
आपका अपना
विवेक गुप्ता