जिन्दगी और मौत

कितनी अजीब है ये जिन्दगी
जो कि हर पल
मौत के साथ
आंख मिंचौली खेलती रहती है।
कितनी मासूम है ये पगली
जिसे ये भी नहीं पता
कि वो
कभी किसी की सगी नहीं हुई।
उसने हमेशा ही सबको छला है
इस पर
कब जोर किसका चला है।
और ये बेवकूफ
उसको अपना सगा मानती है।
उसके बगैर
एक पग भी चलना नहीं जानती है।
शायद इसको पता नहीं
इसने अच्छे-अच्छों के
घर उजाड़ दिये।
बड़े बड़ों के साम्राज्य
मिट्टी में मिला दिये।
और ये पगली
बाहों के हार लिए
उसी की ओर
मदहोश हुए दौड़ी जाती है
अनवरत! अनवरत!अनवरत!
लेकिन
जिस दिन
वो मदहोश होकर
इसे अपने भुजपाश में
जकड़ने को आतुर होगी
उस दिन
जीवन ‘ज्योति’ बुझने के बाद ही
उसे
उसकी वास्तविक मित्रता का
सच्चा अहसास होगा।
वो उसके रोम-रोम को
पंचतत्व में विलीन कर
खाक में मिला देगी
हमेशा – हमेशा के लिए।
हमेशा-हमेशा के लिए।

अस्तु।

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