चार दिन की ज़िंदगानी

जब जिंदगानी चार दिन की रह गई।
किस लिए अब फासले मिटाते हो।।
रहने दो दीवार अब यूं ही खड़ी।
किस लिए इसे आप अब गिराते हो।।
एक ये ही तो बनी पहचान है।
प्यार की अविरल हमारे आपके।।
रहने दो इसको खड़ी हूं ही सदा।
किसलिए बेवक्त ही गिराते हो।।
इस पे हैं दोनों तरफ लिक्खी गई।
प्यार की अनुपम सी हैं कहानियां।
जिन्दगी भर साथ जो देती रहें।
वो निशानियां खुद आप क्यों मिटाते हो।।
बेवक्त की ये रहनुमाई किस लिए।
किसलिए बेवक्त ही मुस्काते हो।।
क्या फिर नगीना दिख गया कोई पास में।
जिसको अपना रह रह बताते हो।।
ज़ख्म ही बस ज़ख्म अब हैं पास में।
मक्खियों सा काहे भिन-भिनाते हो।।
रहने दो खामोश ही हमको पड़ा।
किसलिए नश्तर सदा चुभाते हो।।
‘ज्योति’यों से दीप न जलते कभी।
मन अकेला ही रहा जलता यहां।।
रहने दो कुछ ही बचीं चिंगारियां।
किसलिए अब उनको आ बुझाते हो।।

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