संदोह
अल्पता से स्वल्पता तक आ गया हूं।
अल्पना से कल्पना तन छा गया हूं।
अब बीतते हैं रात दिन सब रीते रीते।
हर सांस में कुछ तरह समा गया हूं।।
झाड़ियों को पा मिला सुकून मुझको।
नागफनियों ने डसा था खूब मुझको। है
अब नहीं शिकायत मुझे किसी बात की है।
रक्त से अपनों ने नहलाया है मुझको।।
है नहीं ये रक्त, है मद, लोभ, मोह ये।
क्रोध का आवेश और निज द्रोह है ये।
पार इनसे जा सका कितना है कोई।
सृष्टिकर्ता का गजब संदोह है ये।।